"शिवमहिम्न स्तोत्र" का संशोधनहरू बिचको अन्तर
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यसरी शिवमहिम्न स्तोत्र को रचना भयो । |
यसरी शिवमहिम्न स्तोत्र को रचना भयो । |
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==यो पनि हेर्नुहोस्== |
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== '''स्तोत्र (मूलापाठ)''' == |
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{{wikibooks|शिव महिम्नस्तोत्र}} |
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शिवमहिम्नस्तोत्र मा ४३ श्लोक छन् |
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'''पुष्पदन्त उवाच -''' |
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महिम्नः पारं ते परमविदुषो यद्यसदृशी। |
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स्तुतिर्ब्रह्मादीनामपि तदवसन्नास्त्वयि गिरः।। |
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अथाऽवाच्यः सर्वः स्वमतिपरिणामावधि गृणन्। |
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ममाप्येष स्तोत्रे हर निरपवादः परिकरः।। १।। |
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अतीतः पंथानं तव च महिमा वांमनसयोः। |
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अतद्व्यावृत्त्या यं चकितमभिधत्ते श्रुतिरपि।। |
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स कस्य स्तोतव्यः कतिविधगुणः कस्य विषयः। |
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पदे त्वर्वाचीने पतति न मनः कस्य न वचः।। २।। |
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मधुस्फीता वाचः परमममृतं निर्मितवतः। |
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तव ब्रह्मन् किं वागपि सुरगुरोर्विस्मयपदम्।। |
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मम त्वेतां वाणीं गुणकथनपुण्येन भवतः। |
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पुनामीत्यर्थेऽस्मिन् पुरमथन बुद्धिर्व्यवसिता।। ३।। |
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तवैश्वर्यं यत्तज्जगदुदयरक्षाप्रलयकृत्। |
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त्रयीवस्तु व्यस्तं तिस्रुषु गुणभिन्नासु तनुषु।। |
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अभव्यानामस्मिन् वरद रमणीयामरमणीं। |
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विहन्तुं व्याक्रोशीं विदधत इहैके जडधियः।। ४।। |
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किमीहः किंकायः स खलु किमुपायस्त्रिभुवनं। |
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किमाधारो धाता सृजति किमुपादान इति च।। |
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अतर्क्यैश्वर्ये त्वय्यनवसर दुःस्थो हतधियः। |
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कुतर्कोऽयं कांश्चित् मुखरयति मोहाय जगतः।। ५।। |
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अजन्मानो लोकाः किमवयववन्तोऽपि जगतां। |
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अधिष्ठातारं किं भवविधिरनादृत्य भवति।। |
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अनीशो वा कुर्याद् भुवनजनने कः परिकरो। |
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यतो मन्दास्त्वां प्रत्यमरवर संशेरत इमे।। ६।। |
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त्रयी सांख्यं योगः पशुपतिमतं वैष्णवमिति। |
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प्रभिन्ने प्रस्थाने परमिदमदः पथ्यमिति च।। |
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रुचीनां वैचित्र्यादृजुकुटिल नानापथजुषां। |
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नृणामेको गम्यस्त्वमसि पयसामर्णव इव।। ७।। |
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महोक्षः खट्वांगं परशुरजिनं भस्म फणिनः। |
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कपालं चेतीयत्तव वरद तन्त्रोपकरणम्।। |
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सुरास्तां तामृद्धिं दधति तु भवद्भूप्रणिहितां। |
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न हि स्वात्मारामं विष यमृगतृष्णा भ्रमयति।। ८।। |
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ध्रुवं कश्चित् सर्वं सकलमपरस्त्वध्रुवमिदं। |
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परो ध्रौव्याऽध्रौव्ये जगति गदति व्यस्तविषये।। |
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समस्तेऽप्येतस्मिन् पुरमथन तैर्विस्मित इव। |
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स्तुवन् जिह्रेमि त्वां न खलु ननु धृष्टा मुखरता।। ९।। |
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तवैश्वर्यं यत्नाद् यदुपरि विरिंचिर्हरिरधः। |
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परिच्छेतुं यातावनिलमनलस्कन्धवपुषः।। |
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ततो भक्तिश्रद्धा-भरगुरु-गृणद्भ्यां गिरिश यत्। |
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स्वयं तस्थे ताभ्यां तव किमनुवृत्तिर्न फलति।। १०।। |
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अयत्नादापाद्य त्रिभुवनमवैरव्यतिकरं। |
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दशास्यो यद्बाहूनभृत-रणकण्डू-परवशान्।। |
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शिरःपद्मश्रेणी-रचितचरणाम्भोरुह-बलेः। |
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स्थिरायास्त्वद्भक्तेस्त्रिपुरहर विस्फूर्जितमिदम्।। ११।। |
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अमुष्य त्वत्सेवा-समधिगतसारं भुजवनं। |
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बलात् कैलासेऽपि त्वदधिवसतौ विक्रमयतः।। |
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अलभ्यापातालेऽप्यलसचलितांगुष्ठशिरसि। |
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प्रतिष्ठा त्वय्यासीद् ध्रुवमुपचितो मुह्यति खलः।। १२।। |
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यदृद्धिं सुत्राम्णो वरद परमोच्चैरपि सतीं। |
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अधश्चक्रे बाणः परिजनविधेयत्रिभुवनः।। |
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न तच्चित्रं तस्मिन् वरिवसितरि त्वच्चरणयोः। |
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न कस्याप्युन्नत्यै भवति शिरसस्त्वय्यवनतिः।। १३।। |
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अकाण्ड-ब्रह्माण्ड-क्षयचकित-देवासुरकृपा- |
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विधेयस्याऽऽसीद् यस्त्रिनयन विषं संहृतवतः।। |
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स कल्माषः कण्ठे तव न कुरुते न श्रियमहो। |
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विकारोऽपि श्लाघ्यो भुवन-भय-भंग-व्यसनिनः।। १४।। |
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असिद्धार्था नैव क्वचिदपि सदेवासुरनरे। |
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निवर्तन्ते नित्यं जगति जयिनो यस्य विशिखाः।। |
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स पश्यन्नीश त्वामितरसुरसाधारणमभूत्। |
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स्मरः स्मर्तव्यात्मा न हि वशिषु पथ्यः परिभवः।। १५।। |
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मही पादाघाताद् व्रजति सहसा संशयपदं। |
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पदं विष्णोर्भ्राम्यद् भुज-परिघ-रुग्ण-ग्रह-गणम्।। |
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मुहुर्द्यौर्दौस्थ्यं यात्यनिभृत-जटा-ताडित-तटा। |
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जगद्रक्षायै त्वं नटसि ननु वामैव विभुता।। १६।। |
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वियद्व्यापी तारा-गण-गुणित-फेनोद्गम-रुचिः। |
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प्रवाहो वारां यः पृषतलघुदृष्टः शिरसि ते।। |
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जगद्द्वीपाकारं जलधिवलयं तेन कृतमिति। |
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अनेनैवोन्नेयं धृतमहिम दिव्यं तव वपुः।। १७।। |
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रथः क्षोणी यन्ता शतधृतिरगेन्द्रो धनुरथो। |
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रथांगे चन्द्रार्कौ रथ-चरण-पाणिः शर इति।। |
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दिधक्षोस्ते कोऽयं त्रिपुरतृणमाडम्बर विधिः। |
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विधेयैः क्रीडन्त्यो न खलु परतन्त्राः प्रभुधियः।। १८।। |
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हरिस्ते साहस्रं कमल बलिमाधाय पदयोः। |
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यदेकोने तस्मिन् निजमुदहरन्नेत्रकमलम्।। |
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गतो भक्त्युद्रेकः परिणतिमसौ चक्रवपुषः। |
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त्रयाणां रक्षायै त्रिपुरहर जागर्ति जगताम्।। १९।। |
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क्रतौ सुप्ते जाग्रत् त्वमसि फलयोगे क्रतुमतां। |
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क्व कर्म प्रध्वस्तं फलति पुरुषाराधनमृते।। |
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अतस्त्वां सम्प्रेक्ष्य क्रतुषु फलदान-प्रतिभुवं। |
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श्रुतौ श्रद्धां बध्वा दृढपरिकरः कर्मसु जनः।। २०।। |
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क्रियादक्षो दक्षः क्रतुपतिरधीशस्तनुभृतां। |
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ऋषीणामार्त्विज्यं शरणद सदस्याः सुर-गणाः।। |
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क्रतुभ्रंशस्त्वत्तः क्रतुफल-विधान-व्यसनिनः। |
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ध्रुवं कर्तुं श्रद्धा विधुरमभिचाराय हि मखाः।। २१।। |
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प्रजानाथं नाथ प्रसभमभिकं स्वां दुहितरं। |
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गतं रोहिद् भूतां रिरमयिषुमृष्यस्य वपुषा।। |
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धनुष्पाणेर्यातं दिवमपि सपत्राकृतममु। |
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त्रसन्तं तेऽद्यापि त्यजति न मृगव्याधरभसः।। २२।। |
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स्वलावण्याशंसा धृतधनुषमह्नाय तृणवत्। |
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पुरः प्लुष्टं दृष्ट्वा पुरमथन पुष्पायुधमपि।। |
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यदि स्त्रैणं देवी यमनिरत-देहार्ध-घटनात्। |
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अवैति त्वामद्धा बत वरद मुग्धा युवतयः।। २३।। |
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श्मशानेष्वाक्रीडा स्मरहर पिशाचाः सहचराः। |
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चिता-भस्मालेपः स्रगपि नृकरोटी-परिकरः।। |
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अमंगल्यं शीलं तव भवतु नामैवमखिलं। |
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तथापि स्मर्तॄणां वरद परमं मंगलमसि।। २४।। |
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मनः प्रत्यक् चित्ते सविधमविधायात्त-मरुतः। |
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प्रहृष्यद्रोमाणः प्रमद-सलिलोत्संगति-दृशः।। |
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यदालोक्याह्लादं ह्रद इव निमज्यामृतमये। |
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दधत्यन्तस्तत्त्वं किमपि यमिनस्तत् किल भवान्।। २५।। |
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त्वमर्कस्त्वं सोमस्त्वमसि पवनस्त्वं हुतवहः। |
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त्वमापस्त्वं व्योम त्वमु धरणिरात्मा त्वमिति च।। |
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परिच्छिन्नामेवं त्वयि परिणता बिभ्रति गिरं। |
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न विद्मस्तत्तत्त्वं वयमिह तु यत् त्वं न भवसि।। २६।। |
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त्रयीं तिस्रो वृत्तीस्त्रिभुवनमथो त्रीनपि सुरान्। |
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अकाराद्यैर्वर्णैस्त्रिभिरभिदधत् तीर्णविकृति।। |
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तुरीयं ते धाम ध्वनिभिरवरुन्धानमणुभिः। |
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समस्त-व्यस्तं त्वां शरणद गृणात्योमिति पदम्।। २७।। |
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भवः शर्वो रुद्रः पशुपतिरथोग्रः सहमहान्। |
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तथा भीमेशानाविति यदभिधानाष्टकमिदम्।। |
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अमुष्मिन् प्रत्येकं प्रविचरति देव श्रुतिरपि। |
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प्रियायास्मैधाम्ने प्रणिहित-नमस्योऽस्मि भवते।। २८।। |
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नमो नेदिष्ठाय प्रियदव दविष्ठाय च नमः। |
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नमः क्षोदिष्ठाय स्मरहर महिष्ठाय च नमः।। |
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नमो वर्षिष्ठाय त्रिनयन यविष्ठाय च नमः। |
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नमः सर्वस्मै ते तदिदमतिसर्वाय च नमः।। २९।। |
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बहुल-रजसे विश्वोत्पत्तौ, भवाय नमो नमः। |
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प्रबल-तमसे तत् संहारे, हराय नमो नमः।। |
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जन-सुखकृते सत्त्वोद्रिक्तौ, मृडाय नमो नमः। |
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प्रमहसि पदे निस्त्रैगुण्ये, शिवाय नमो नमः।। ३०।। |
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कृश-परिणति-चेतः क्लेशवश्यं क्व चेदं। |
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क्व च तव गुण-सीमोल्लंघिनी शश्वदृद्धिः।। |
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इति चकितममन्दीकृत्य मां भक्तिराधाद्। |
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वरद चरणयोस्ते वाक्य-पुष्पोपहारम्।। ३१।। |
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असित-गिरि-समं स्यात् कज्जलं सिन्धु-पात्रे। |
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सुर-तरुवर-शाखा लेखनी पत्रमुर्वी।। |
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लिखति यदि गृहीत्वा शारदा सर्वकालं। |
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तदपि तव गुणानामीश पारं न याति।। ३२।। |
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असुर-सुर-मुनीन्द्रैरर्चितस्येन्दु-मौलेः। |
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ग्रथित-गुणमहिम्नो निर्गुणस्येश्वरस्य।। |
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सकल-गण-वरिष्ठः पुष्पदन्ताभिधानः। |
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रुचिरमलघुवृत्तैः स्तोत्रमेतच्चकार।। ३३।। |
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अहरहरनवद्यं धूर्जटेः स्तोत्रमेतत्। |
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पठति परमभक्त्या शुद्ध-चित्तः पुमान् यः।। |
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स भवति शिवलोके रुद्रतुल्यस्तथाऽत्र। |
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प्रचुरतर-धनायुः पुत्रवान् कीर्तिमांश्च।। ३४।। |
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महेशान्नापरो देवो महिम्नो नापरा स्तुतिः। |
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अघोरान्नापरो मन्त्रो नास्ति तत्त्वं गुरोः परम्।। ३५।। |
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दीक्षा दानं तपस्तीर्थं ज्ञानं यागादिकाः क्रियाः। |
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महिम्नस्तव पाठस्य कलां नार्हन्ति षोडशीम्।। ३६।। |
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कुसुमदशन-नामा सर्व-गन्धर्व-राजः। |
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शशिधरवर-मौलेर्देवदेवस्य दासः।। |
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स खलु निज-महिम्नो भ्रष्ट एवास्य रोषात्। |
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स्तवनमिदमकार्षीद् दिव्य-दिव्यं महिम्नः।। ३७।। |
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सुरगुरुमभिपूज्य स्वर्ग-मोक्षैक-हेतुं। |
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पठति यदि मनुष्यः प्रांजलिर्नान्य-चेताः।। |
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व्रजति शिव-समीपं किन्नरैः स्तूयमानः। |
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स्तवनमिदममोघं पुष्पदन्तप्रणीतम्।। ३८।। |
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आसमाप्तमिदं स्तोत्रं पुण्यं गन्धर्व-भाषितम्। |
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अनौपम्यं मनोहारि सर्वमीश्वरवर्णनम्।। ३९।। |
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इत्येषा वाङ्मयी पूजा श्रीमच्छंकर-पादयोः। |
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अर्पिता तेन देवेशः प्रीयतां में सदाशिवः।। ४०।। |
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तव तत्त्वं न जानामि कीदृशोऽसि महेश्वर। |
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यादृशोऽसि महादेव तादृशाय नमो नमः।। ४१।। |
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एककालं द्विकालं वा त्रिकालं यः पठेन्नरः। |
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सर्वपाप-विनिर्मुक्तः शिव लोके महीयते।। ४२।। |
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श्री पुष्पदन्त-मुख-पंकज-निर्गतेन। |
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स्तोत्रेण किल्बिष-हरेण हर-प्रियेण।। |
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कण्ठस्थितेन पठितेन समाहितेन। |
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सुप्रीणितो भवति भूतपतिर्महेशः।। ४३।। |
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'''''।। इति श्री पुष्पदन्त विरचितं शिवमहिम्नः स्तोत्रं सम्पूर्णम्।।'''''{{wikibooks|शिव महिम्नस्तोत्र}} |
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[[श्रेणी:हिन्दू स्तोत्रहरू]] |
[[श्रेणी:हिन्दू स्तोत्रहरू]] |
१५:२९, ६ डिसेम्बर २०१८को रुपमा हालको पुनरावलोकनहरू
शिवमहिम्न स्तोत्र (संस्कृत श्रीशिवमहिम्नस्तोत्रम् )। शिव महिम्न को अर्थ हो शिवको महिमा । शिवमहिम्नस्तोत्र एउटा अत्यन्त सुन्दर शिव स्तोत्र हो । शिवभक्त श्री गन्धर्वराज पुष्पदन्तको अगाध प्रेमले ओतप्रोत यो स्तोत्र भगवान् शिव को प्रिय स्तोत्र हो ।
महिम्नस्तोत्र मा भनिएको छ स्तोत्रेण किल्बिषहरेण हरप्रियेण।। अर्थात् हरेक प्रकारका पापहरु नष्ट गर्न सक्ने यो स्तोत्र भगवान् शिव को अति प्रिय छ ।
निहित कथा[सम्पादन गर्नुहोस्]
एक समय को कुरा हो जब चित्ररथ नामक शिवभक्त राजा भए उनले आफ्नो राज्यमा कयौँ पुष्प उद्यानहरु बनाए । उनी शिवपूजनको लागि फूलहरु त्यहीँबाट लैजान्थे । महान् शिवभक्त गन्धर्वराज पुष्पदन्त देवराज इन्द्रको मुख्य सभाका प्रमुख गायक थिए । एकदिन उनको नजर त्यस उद्यानमा पर्यो तब उनी मोहीत भए र त्यस उद्यानको फूल चुँडेर त्यहाँबाट प्रस्थान गरे । मायावी गन्धर्वलाई कसैले देखेन तर राजा ले थाहा पाइहाले । पुष्पदन्तलाई पकड्ने असफल प्रयास पनि गरे । अनि राजाले एउटा उपाय सोचेर शिव पूजनका सबै फूलहरु त्यस उद्यानको बाटोमा बिछ्याइदिए । जब अर्को दिन गन्धर्वराज पुष्पदन्त त्यहाँ आए तब तिनले शिवको निर्माल्य वस्तुहरु देखेनन् तब उनले ती फूलहरु कुल्चिए । गन्धर्वराजले शिवक्रोधको सामना गर्नुपर्यो । साथै उनको सम्पूर्ण शक्ति पनि सकियो । जब उनलाई आफ्नो भूलको आभास भयो तब उनले एउटा शिवलिंग स्थापना गरेर त्यसको प्रार्थनाम केही छन्दहरु गाए । शिवजी प्रसन्न भएर उनलाई शक्ति फिर्ता गरिदिनुभयो र यो आशीर्वाद दिनुभयो कि तिमीले गाएको यो छन्दसमूह भविष्यमा शिव महिम्नस्तोत्र भनेर प्रसिद्ध हुनेछ । जसको पाठ ले मात्रै पनि सम्पूर्ण पापहरु नष्टहुन सक्दछन् ।
यसरी शिवमहिम्न स्तोत्र को रचना भयो ।